कृष्ण यजुर्वेदीय ‘कठोपनिषद्’ – 2/3/14-15 :-
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः।
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥१४॥
यथा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्थयः।
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्येतावद्ध्यनुशासनम् ॥१५॥
अनुवाद:- जिस समय इसके हृदय/बुद्धि में आश्रय करके रहनेवाली सम्पूर्ण कामनाएँ छूट जाती हैं, उस समय वह ‘मर्त्य’ (अर्थात् मरणधर्मा) अमर हो जाता है और ‘इस शरीर से ही’ (अर्थात् इसी जीवन में) ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है ।14। जिस समय इस जीवन में ही इसके ‘हृदय की सम्पूर्ण ग्रन्थियों का’ (अर्थात् अविद्याजनित सम्पूर्ण प्रतीतियों/वासनाओं का) छेदन हो जाता है, उस समय यह मरणधर्मा अमर हो जाता है। ‘बस इतना ही आदेश है’ (अर्थात् सम्पूर्ण वेदान्तवाक्यों का बस इतना ही आदेश है) ।15।
👆 सम्पूर्ण कामनाओं से छुटकारा हो जाना ही अमरत्व है और जब ऐसा होता है तब व्यक्ति जीते जी ही इसी जीवन में मुक्त हो जाता है अर्थात् जीवनमुक्ति को प्राप्त हो जाता है और ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है यानि ब्रह्म ही हो जाता है। “मैं यह शरीर हूँ”, “यह मेरा धन है”, “मैं दु:खी हूँ”, “मैं सुखी हूँ” इत्यादि —ये सब अविद्याजनित प्रतीतियां हैं। “मैं असंसारी ब्रह्म ही हूँ” —इस प्रकार के बोध द्वारा इन अविद्याजनित प्रतीतियों का नाश हो जाता है, तभी हृदय अथवा बुद्धि में आश्रय करनेवाली समस्त कामनाएँ पूर्णतया नष्ट होती हैं। “बस इतना ही आदेश है” यानि समस्त वेदान्तवाक्यों का बस इतना ही आदेश है कि “मैं असंसारी ब्रह्म ही हूँ” —ऐसे बोध द्वारा अविद्याजनित प्रतीतियों का समूल नाश करते हुए जीते जी ही समस्त कामनाओं से मुक्त हो जाओ, अमरत्व को प्राप्त करो और ब्रह्म हो जाओ।
शिवोऽहम् 🕉🙏