meaning of maya and mithya ~ माया और मिथ्या का क्या अर्थ है
माया और मिथ्या- अद्वैत वेदांत के अनुसार
अद्वैत वेदांत भारतीय दर्शन की एक प्रमुख धारा है जो अद्वैत (अर्थात – अद्वितीयता या अविभाज्यता) के सिद्धांत पर आधारित है। इसका मुख्य उद्देश्य आत्मा (आत्मन) और ब्रह्म (सर्वोच्च वास्तविकता) की एकता की अवधारणा को समझाना है। इसका सबसे प्रसिद्ध समर्थक आदि शंकराचार्य हैं, जिन्होंने 8वीं शताब्दी में इसका विस्तार से प्रतिपादन किया। जिसे भगवान आदि शंकराचार्य ने प्रमुख रूप से प्रचारित किया। अद्वैत वेदांत के अनुसार, माया और मिथ्या दो महत्वपूर्ण अवधारणाएँ हैं जिनके माध्यम से जगत और ब्रह्म की वास्तविकता को समझाया जाता है।
माया
माया– का शाब्दिक अर्थ है भ्रम या मोह। अद्वैत वेदांत में, माया को वह शक्ति माना जाता है जो ब्रह्म (परम वास्तविकता) को आवृत्त करके जगत का प्रपंच रचती है। माया के कारण ही एक जीव ब्रह्म की असली स्वरूप को नहीं देख पाता और संसार के वस्त्रों और घटनाओं को सत्य मान बैठता है। आदि शंकराचार्य ने माया को ‘अनिरवचनीय’ (अवर्णनीय) और ‘अव्यक्ता’ (अप्रकट) बताया है।
प्रमाण– आदि शंकराचार्य के “विवेकचूडामणि” में माया का वर्णन इस प्रकार किया गया है:
“माया कचिदवर्णनीया महाशक्ति, अनिर्वचनीया रचना।”
अर्थात, माया एक महान शक्ति है, जिसकी रचना को वाणी से व्यक्त नहीं किया जा सकता।
मिथ्या
मिथ्या– का अर्थ है असत्य या भ्रमित करने वाला। अद्वैत वेदांत के अनुसार, संसार की वस्तुएँ मिथ्या हैं क्योंकि वे केवल प्रतीत होती हैं लेकिन उनका कोई स्थायी अस्तित्व नहीं होता। यह कहना नहीं है कि संसार पूरी तरह से अस्तित्वहीन है, बल्कि इसका मतलब यह है कि यह ब्रह्म के सत्-चित्-आनंद स्वरूप के मुकाबले असत्य है।
मिथ्या का मतलब है वह चीज़ जो न तो पूरी तरह से सत्य है और न ही पूरी तरह से असत्य, बल्कि यह भ्रम के कारण वास्तविकता की तरह प्रतीत होती है। शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत के अनुसार, केवल ब्रह्म सत्य है (अद्वितीय, अपरिवर्तनीय और शाश्वत सत्य), और माया के कारण जगत असत्य या मिथ्या है।
प्रमाण– आदि शंकराचार्य ने ब्रह्म सूत्र के भाष्य में लिखा है~
ब्रह्म सत्यम्, जगत मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः।
अर्थात, ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है, और जीव ब्रह्म ही है, अन्य कुछ नहीं।
माया और मिथ्या का संबंध
अद्वैत वेदांत में माया और मिथ्या का आपस में गहरा संबंध है। माया की शक्ति से ही संसार का अस्तित्व होता है और यह संसार मिथ्या है। माया के आवरण के कारण जीव ब्रह्म को पहचान नहीं पाता और संसार को वास्तविक मानता है।
प्रमाण– मंडूक्य उपनिषद के अनुसार~
माया मेव यत्, जगत् तु मिथ्या।
अर्थात, माया ही सब कुछ है, और जगत मिथ्या है।
निष्कर्ष
अद्वैत वेदांत में माया और मिथ्या की अवधारणाएँ यह समझने में मदद करती हैं कि कैसे जगत एक भ्रम है और ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है। आदि शंकराचार्य ने अपने विभिन्न ग्रंथों और भाष्यों में इन अवधारणाओं को विस्तृत रूप में समझाया है। माया के कारण ही जीव ब्रह्म को नहीं पहचान पाता और संसार को सत्य मानकर भ्रमित होता है।
इस प्रकार, अद्वैत वेदांत के अनुसार, माया और मिथ्या का सही अर्थ और समझ ही मोक्ष के मार्ग को प्रशस्त करता है।
One reply on “Maya/mithya: माया और मिथ्या का क्या अर्थ है?”
Very good nice work