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आईये जानें: क्या आर्यसमाज सच में वैदिक है?

आर्य समाज कल्पवेदाङ्ग, स्मृति व इतिहासग्रन्थों को मिलावटी कहता है। आर्य समाज वेद के संहिताभाग को ही वेद मानता है और ब्राह्मणग्रन्थों को भी मिलावटी कहता है, आर्य समाज के बड़े विद्वान गङ्गाप्रसाद उपाध्याय ‘सायण और दयानन्द’ नामक पुस्तक में बताते हैं कि ब्राह्मणग्रन्थों में पशुबलि है और आलभन शब्द का अर्थ हम समाजी हर स्थानपर ‘स्पर्श करना’ नहीं ले सकते, वहाँ अर्थ काटना ही होगा। तो समाजी ब्राह्मणग्रन्थों में भी मिलावट मानते ही हैं। और इन सब ग्रन्थों को मिलावटी कहने के साथ साथ आर्यसमाज इन ग्रन्थों को अपने मतलब के अनुसार मानता भी है। इनको मिलावटी कहने के पीछे समाजी यह कारण बताते है कि इन ग्रन्थों में विधर्मियों द्वारा मिलावट कर दी गई क्योंकि इनका संरक्षण अच्छे से नहीं हुआ और इन ग्रन्थों में वेदविरुद्ध बातें भी हैं इसलिए भी ये ग्रन्थ मिलावटी हैं।

समाजियों का पहला तर्क ही ठीक नहीं है क्योंकि संरक्षण अच्छे से न होने से मिलावट हो जाना सिद्ध नहीं होता, संरक्षण अच्छे से न होने का अर्थ यह भी होता है कि लघुमात्रा में भूलचूक से कुछ पाठभेद आ जायें अथवा कुछ अंश लुप्त हो जाये। यदि इन ग्रन्थों में समय समय के साथ कुछ अंश जुड़ें भी हैं तो भी उसे मिलावट नहीं कह सकते क्योंकि वैदिक संप्रदायों में ग्रन्थों के वचन श्रुति परंपरा से भी चलते आये हैं और समय समय पर उन्हें ग्रन्थ में जोड़ा भी गया होगा।

समाजियों का दूसरा तर्क भी पूरी तरह से ठीक नहीं कि ग्रन्थों में वेदविरुद्ध बात हो तो वो मिलावट है, यदि ग्रन्थ में वेदविरुद्ध बात है तो उसे ग्रन्थकार का दोष माना जा सकता है, परन्तु समाजी यहाँ पर कहते हैं कि ऋषि से गलती हो ही नहीं सकती, उनका ऐसा कहना उनकी तर्कविरुद्ध अन्ध आस्था का ही सूचक है। उदाहरण के लिए मीमांसासुत्र 1/3/11-14 में कहा गया है कि यदि कोई कल्पसूत्र स्पष्टता श्रुति के विरोध में हो तो उसे अमान्य कर दिया जाये, परन्तु मीमांसासूत्रकार ने कहीं ऐसा नहीं बोला कि उसे मिलावट माना जाये। वो ग्रन्थकार का ही दोष होगा।

परन्तु फिर भी यदि समाजी के ये दोनों तर्क स्वीकार कर लिये जायें और इन ग्रन्थों को मिलावटी मान लिया जाये तो तब तो समाजियों के समक्ष बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो जायेगी। क्योंकि आज यह निर्णय कर पाना असंभव है कि इन ग्रन्थों में क्या मिलावटी है और क्या नहीं। उन बातों को तो मिलावटी कह दोगे जो वेदविरुद्ध हों पर बाकि सब बातों का क्या होगा जो वेदविरुद्ध नहीं है और जो इन ग्रन्थों की अपनी मौलिक सामग्री है (जो वेद में नहीं मिलती, केवल इन ग्रन्थों में है), यदि ग्रन्थ में विधर्मियों द्वारा मिलावट हुई है तो उसने इनमें भी मिलावट की ही होगी, मिलावट हो जानेपर अब ये ग्रन्थ विश्वसनीय नहीं रहे, तो अब इस परिस्थिति में तो समाजियों को अब इन ग्रन्थों को ही पूर्णतया नकार देना होगा क्योंकि अब इनका काम ही क्या रहा? फिर इनमें जो मिलावटरहित बचेगा वो तो पहले से वेद में है ही।

कल्पवेदाङ्ग के बिना यज्ञ संपन्न हो ही नहीं सकता, असंभव है। कल्पवेदाङ्ग व स्मृति के बिना धर्म का भी विधिवत पूर्ण निर्णय हो पाना असंभव है, मनुस्मृति 2/6 में ही कहा गया है कि “वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम” अर्थात् वेद व वेदों को जाननेवालों के स्मृतिग्रन्थ धर्म का मूल हैं। बिना स्मृति के मूल ही नहीं रहेगा, स्मृति को तो मिलावटी मानने पर ही धर्म भी मिलावटी सिद्ध हो जाता है। ब्राह्मण ग्रन्थ भी यज्ञ व धर्म के लिए अनिवार्य है। इतिहासग्रन्थ भी स्मृति के पश्चात् धर्म के लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं। तो कुलमिलाकर के यह निष्कर्ष निकलता है कि ब्राह्मणग्रन्थ, कल्प, स्मृति व इतिहास को मिलावट मानना मूर्खता है और ऐसा करनेपर वैदिकमत का विनाश हो जायेगा, चूंकि आर्यसमाजी ऐसा करते हैं, इसलिए ये लोग अवैदिक ही सिद्ध होते हैं।

ॐ तत्सत् 🕉🙏

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