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Shiv and Vishnu: क्या हरि (विष्णु) हर (शिव) में भेद है?

आई आज इस लेख और वीडियो के माध्यम से जानते हैं क्या शिव और विष्णु में भेद हैं?

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क्या विष्णु (Vishnu) से भिन्न भगवान् के किसी भी अन्य स्वरूप की विशेषता के संबंध में बात करने वाले पुराणादि धर्मग्रंथ तामसिक हैं और उन्हें सनातन सत्य के रूप में स्वीकार करना उचित नहीं है ? 

सर्वप्रथम ऐसे भी प्रमाण प्राप्त है जिनके अनुसार विष्णु को सर्वोपरि बताने वाले शास्त्र तामसिक हैं और भगवान् शिव की श्रेष्ठता का व्याख्यान करने वाले पुराण सात्विक हैं। 

स्कंदपुराण शंकरसंहिता शिवरहस्य खण्ड शाम्भव खण्ड 45 

शास्त्रों के अनुसार मनुष्य योनि में जन्म लेने वाला प्रत्येक जीव तमोगुणी है जिसके कारण वह संसार में फंसा हुआ है परंतु स्वयं को तमोगुण से पृथक् करने हेतु शास्त्रों द्वारा निर्देशित विधियों का आलंबन लेकर सात्विक कर्म करना अथवा उन्हें धारण करने के लिए प्रयत्नशील होना अर्थात प्रवृत्ति से निवृत्ति और निवृत्ति से निर्वृति (मोक्ष) ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य होता है। 

श्रीमद्भागवत 11.5.11 + 5.56 

अब ऐसे में यदि भागवत को सात्विक पुराण माने तो इसका अर्थ होगा की भागवतपुराण तो किसी के लिए है ही नहीं बल्कि जिनको तामसिक कहा जा रहा है वास्तविकता में वही पुराण मनुष्यों की सिद्धि का हेतु हो सकते हैं क्या यह मानना उचित होगा, नहीं ना ? 

क्या इस प्रकार पुराणों में भेद बताने वाले तंत्र अपने मुख्यालयों के बाहर कोई ऐसी जांच व्यवस्था रखते हैं जिसके आधार पर यह निश्चित हो सके कि वहां आने वाला प्रत्येक आगंतुक सत्त्वगुणयुक्त अथवा सात्विक कर्मों को करने वाला ही है ? क्योंकि यदि वह तामसिक गुण वाला व्यक्ति है तो सात्विक पुराण पढ़ाने वाले केंद्र में उसका कोई कार्य नहीं है। 

इसके साथ ही साथ यदि श्रीमद्भागवतपुराण समग्र रूप से पूरी मानव जाति के लिए उपयोगी नहीं है तो उसे किसी देशकाल स्थिति में ही उपयोगी होने के कारण सनातन शास्त्र माना जाना उचित सिद्ध नहीं होता। दूसरे पक्ष में यदि वह सभी के लिए उपयोगी है तो उसे केवल सात्विक लोगों के लिए उपयोगी सात्विक पुराण कहना अतार्किक सिद्ध होता है। 

यदि यह कहा जाता है की भागवतपुराण अथवा अन्य वैष्णव पुराण तीनों प्रकार के गुण वाले मनुष्यों को मुक्ति प्रदान कर सकते हैं तो ऐसे में यदि किसी पुराण को तामसिक अथवा सात्विक मानने का आधार यह है कि वह किस प्रकार के गुण वाले व्यक्ति के लिए अनुगम्य है तो क्योंकि भागवत के द्वारा तामसिकगुण वालों का उद्धार भी हो रहा है इसलिए भागवत को केवल सात्विक पुराण कहा जाना उचित नहीं ठहरता । 

यदि यह कहा जाता है की भगवान् शिव क्योंकि सृष्टि में संहार नामक कृत्य के निर्वाह का कार्य करते हैं, तमोगुणी कृत्य के स्वामी होने के कारण उनको श्रेष्ठ बताने वाले शास्त्र तामसिक हैं, तो ऐसे में ज्ञातव्य है कि वैष्णव शास्त्र उनमें भी श्रीमद्भागवतम् 

अनुसार शिवजी ही सृष्टि की उत्पत्ति ब्रह्मा के रूप में और पालन विष्णु के रूप में भी करते हैं एवं इसी क्रम में आगे उन्हें सत्व, रज अथवा तम किसी भी प्रकार के गुण से रहित कहा गया है । 

शिवजी किसी भी प्रकार के गुण से रहित हैं एवं वही सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार तीनों करते हुए ब्रह्मा, विष्णु और शिव नाम धारण करते हैं अतः इस प्रकार भी शिवजी की श्रेष्ठता बताने वाले शास्त्र तामसिक सिद्ध नहीं होते। 

श्रीमद्भागवत 8.7.23,31 + महाभारत अनुशासनपर्व दानधर्मपर्व अध्याय 14: 224 

यदि कहा जाए सृष्टि तीन गुणों से बनी हुई है, और यदि सृष्टि के तमोगुणी अंश की व्याख्या के कारण किसी शास्त्र को तामसिक कहा जाता है तो उस परिप्रेक्ष्य में सभी पुराण तामसिक सिद्ध होते हैं। 

परंतु फिर भी यदि यह मान लिया जाए कि केवल शैवादि शास्त्रों में ही सृष्टि के तामस गुणों से युक्त अंश की व्याख्या की गई है जो की पूर्णतया निराधार है फिर भी उन शास्त्रों का पर्यवसान जीवन के तमोगुणी अंश को समझने तथा उन अंशों में आचरण आदि को जानने के विषय में ही लिया जाना उचित सिद्ध होता है। 

जैसे मांस, मद्य, मैथुन आदि के संबंध में धर्माचरण क्या है यह बताने वाले शास्त्रों को तामसिक शास्त्र के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, परंतु किसी भी प्रकार से उस शास्त्र में वर्णित सिद्धांतों को व्यर्थ अथवा सनातन सत्य ना समझना कदापि उचित सिद्ध नहीं होता है। एवं यदि शैवादि शास्त्रों में दिए गए सिद्धांतों को व्यर्थ ही समझना है तो ऐसे कई वृत्तांत हैं जिनसे वैष्णव धर्म की भी सिद्धि होती है। जैसे शिवपुराण में तुलसी जी की उत्पत्ति और विष्णु भगवान् के साथ उनके संयोग का वर्णन दिया गया है तो क्या इस को सत्य नहीं समझना चाहिए? 

गिरिजा, उमा, शिवा और गौरी कहीं जानेवाली शक्ति के अंश से तुलसी की उत्पत्ति । 

शिव पुराण युद्ध खंड 26.16,17,18,34,35,41, 42 व देवीभागवत 9.17 

विष्णु को प्रिय 

शिवपुराण युद्ध खंड 26 

हजारों घड़े अमृत के समान तुलसी । 

झूठी प्रतिज्ञा करने पर कुंभीपाक नामक दंड । 

शालिग्राम की उत्पत्ति। 

तुलसी भोग और मोक्ष दोनों में सहायक। 

देवीभागवत नवां स्कन्ध अध्याय 24 व 25 

वस्तु स्थिति यह है कि पुराण अलग-अलग है ही नहीं । सृष्टि के प्रारंभ में एक अरब श्लोक संख्या वाला एक ही पुराण था जिसके द्वापर में व्यास जी द्वारा 18 भाग किए जाते हैं। 

पद्मपुराण 1:1:45-46 + मत्स्यपुराण 53:5 

सभी पुराणों का परिचय देते समय प्रत्येक पुराण में उसी पुराण को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। यही नहीं पद्मपुराण में भी पद्मपुराण को भी मोक्षदायक पुराण तथा उसके पूजन को भगवान् विष्णु का पूजन कहा गया है। 

पद्म पुराण क्रियायोगसारखंड 26.50-54 

ऐसे में पद्मपुराण के आधार पर शिवपुराणादि को ठुकराने वाले जो इस्कॉन जैसे तंत्र अथवा मतावलंबी जो सबसे अंत में लिखा जाने वाला और व्यास जी को संतुष्टि प्रदान करने वाला सिद्ध करने का प्रयास करते हुए श्रीमद्भागवतपुराण को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने हेतु भागवतम् से भिन्न अन्य पुराणों के लिए अनास्था उत्पन्न करते हैं, वह किस आधार पर पद्मपुराण को श्रीमद्भागवतम् से श्रेष्ठ समकक्ष अथवा निम्न मानेंगे? 

अतः इस प्रकार के श्लोकों का अर्थ केवल इस परिप्रेक्ष्य में लिया जाना ही उचित है की शिवजी के प्रति आस्था रखने वालों की मुक्ति के लिए शिवपुराण आदि सात्विक अर्थात अनुगम्य हैं और विष्णुभगवान् के प्रति आस्था रखने वाले भक्तों के लिए विष्णुपुराण आदि सात्विक अर्थात अनुगम्य हैं। एवं मनुष्य मात्र के मोक्ष हेतु तथा सृष्टि के तीनों गुणों की व्याख्या सभी पुराणों में दी गई है अर्थात सभी पुराण सात्विक भी है राजसिक भी है और तामसिक भी हैं यही मानना युक्तियुक्त एवं शास्त्रसम्मत सिद्ध होता है। 

क्या विष्णु से भिन्न भगवान् के किसी भी अन्य स्वरूप की श्रेष्ठता उनकी भक्ति अथवा विष्णु के साथ शिवादि का एकत्व बताने वाले सभी शास्त्रोक्त वचन केवल भ्रम फैलाने के लिए हैं? 

सर्वप्रथम इन तंत्रों द्वारा सात्विक रूप में स्वीकार किए जाने वाले वैष्णव शास्त्रों में भी अनेक स्थानों पर शिव और विष्णु की एकता बताई गई है। 

महाभारत अनुशासन पर्व मोक्ष धर्म पर्व 341:27-28 + श्रीमद्भागवत 2:4:12 + श्रीमद्भगवत 12:10:22 + वराह पुराण 70:30:26-27,39-40 + नारद पुराण 282:10,1.5.72,15.158 159 + श्रीमद्भागवत 8:7:23 

जहां एक ओर भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं को गायत्री मंत्र बता रहे हैं वहीं दूसरी ओर श्रीमद्भागवत में शिवजी को वेद स्वरूप और गायत्री मंत्र कहा जा रहा है। 

श्रीमद्भगवद्गीता 10.35 + श्रीमद्भागवत 8.7.30 

10 नाम अपराध में से एक – हरिहर में भेद 

नारदपुराण तथा पद्मपुराण ब्रह्म खंड 25.14 

वह बात और है कि पद्म पुराण में दिए 10 नाम अपराध वाले श्लोक का अनुवाद करते समय इस्कॉन ने अर्थ का अनर्थ कर दिया है और यह लिखा है कि शिव को विष्णु के समान अथवा भिन्न समझना अपराध है। इस पंक्ति का क्या अर्थ निकलता है यह तो इस्कॉन वाले ही बता सकते हैं परंतु नारदपुराण में भी दस नाम अपराध बताते समय स्पष्ट कहा गया है कि शिव और विष्णु को भेद दृष्टि से देखना दारुण दोष है। 

श्रीराम का वचन – मुझ में और शिव में कोई भेद नहीं है, भेद मानने वाला अज्ञानी है और जो भेद मानता है उसे कुंभीपाक नामक नरक में हजारों कल्पों तक पकाया जाता है। 

पद्मपुराण पातालखंड 46.20,21 

इसके साथ ही साथ वैष्णव शास्त्रों में अनेक अनेक स्थलों पर भगवान् शिव की श्रेष्ठता बताई गई है। 

श्रीमद्भागवत 4:6:42 + श्रीमद्भागवत 4:6:43 + श्रीमद्भागवत 4:6:50 + श्रीमद्भागवत 8:7:21-31 + महाभारत अनुशासन पर्व दानधर्म पर्व 14:1-8 + महाभारत अनुशासन पर्व दानधर्म पर्व 14:14 महाभारत अनुशासन पर्व दानधर्म पर्व अध्याय 14:140 + महाभारत अनुशासन पर्व दानधर्म पर्व अध्याय 14: 224 + महाभारत अनुशासन पर्व दानधर्म पर्व अध्याय  14:232-234 

भगवान श्री कृष्ण के द्वारा शिव भगवान की परब्रह्म के रूप में स्तुति । 

महाभारत अनुशासन पर्व दानधर्म पर्व अध्याय 17 

महादेव की भक्ति के कारण ही महात्मा श्रीकृष्ण ने संपूर्ण विश्व को व्याप्त कर रखा है । 

भगवान् श्रीकृष्ण ने शिवजी को प्रसन्न करके प्रियतम भाव को प्राप्त कर लिया जिस कारण वह संपूर्ण लोग के प्रियतम बन गए। 

इन माधव ने देवता चराचर गुरु भगवान शिव को प्रसन्न करते हुए पूर्व काल में पूरे 1000 वर्ष तक तपस्या की थी। 

श्री कृष्ण ने प्रत्येक युग में भगवान् शिव को भक्ति के द्वारा संतुष्ट किया है श्रीमध्व द्वारा की जाने वाली परम भक्ति से भगवान् शिव सदा प्रसन्न रहते हैं। श्रीकृष्ण परम शैव हैं। 

महाभारत अनुशासन पर्व दानधर्म पर्व 14:10-14 

श्रीकृष्ण शिवजी की पूजा करने वालों में सबसे परम शैव हैं। 

महाभारत अनुशासन पर्व मोक्ष धर्म पर्व 341 

मुझे कोई और वर नहीं दे सकता इसलिए मैंने पुत्र प्राप्ति के लिए शिव की पूजा की थी । मेरे किए हुए को प्रमाण मानकर लोग उसका अनुकरण करते हैं । 

महाभारत अनुशासन पर्व दानधर्म पर्व 14:428 

संभवतः यहां पर एक कुतर्क किया जा सकता है कि भगवान श्री कृष्ण अपने भक्तों की भक्ति करते हैं अथवा यह सब तो उनकी लीला है परंतु विचारणीय प्रश्न यह है कि जब श्रीकृष्ण भगवान होते हुए अपने भक्तों की भक्ति कर सकते हैं तो शिवजी क्यों नहीं कर सकते अथवा जब श्री कृष्ण लीलावश किसी और को परमेश्वर मानने के संबंध में असत्य वचन कह सकते हैं तो शिवजी क्यों नहीं कह सकते। 

भगवान विष्णु का प्रश्न – भगवान महेश्वर किसको नमस्कार करते हैं किसका जप करते हैं किसका ध्यान करते हैं? 

नारदपुराण 179.196-199 

भगवान शिव का उत्तर- हे गोविंद ! ना तो मैं कुछ ध्यान करता हूं ना तो नमस्कार ही करता हूं तथापि नास्तिकों को प्रवृत्त करने के लिए मात्र ही मैं यह सब करता हूं। 

नारदपुराण 179.200 

इसके साथ ही साथ ऐसे में श्री कृष्ण भगवान के उन वचनों को लीला क्यों नहीं माना जाता जिन वचनों में उन्होंने स्वयं को परमेश्वर कहा है, इसके उत्तर में यह कहना भी उचित नहीं होगा कि हमें भगवान पर पूर्ण विश्वास है कि वह हमसे झूठ नहीं बोलेंगे क्योंकि उनका भगवान होना इन्हीं वचनों के आधार पर सिद्ध किया जाता है और यदि व्यक्ति इन वचनों के बिना ही भगवान श्री कृष्ण को परमेश्वर के रूप में स्वीकार करते हुए उनके प्रति आस्थावान भी है तो ऐसे में वह कौन से वचन है जिनके आधार पर यह वितंडवाद फैलाने वालों ने केवल श्रीकृष्ण को सर्वोच्च ईश्वर के रूप में स्वीकार किया है? यह प्रश्न विचारणीय है।

प्रभु श्रीराम भी शिव जी को अपना आराध्य बताते हुए उनकी श्रेष्ठता का वर्णन कर रहे हैं 

पद्मपुराण 1.38.139-147 

श्रीराम द्वारा गायत्री का आलंबन लेते हुए सच्चिदानंदस्वरूप परब्रह्म के रूप में भगवान् शिव का  

वाल्मीकि रामायण 1.23.3 + 1.29.31-32 

ध्यातव्य है की यदि श्रीराम द्वारा गायत्रीमंत्र का आलंबन लेते हुए शिव के ध्यान को स्वीकार न करके विष्णु अथवा कृष्ण के ध्यान को स्वीकार किया जाएगा तब भी श्रीराम जो कि धर्म के साक्षात् स्वरूप हैं, (वाल्मीकि रामायण 3.37.13) उनके द्वारा साधारण मनुष्यों को अद्वैत सिद्धांत के अनुसार अपने परब्रह्म स्वरूप ईश्वर का ध्यान करने की शिक्षा प्राप्त होगी एवं अन्ततो गत्वा वह शिक्षा भी भगवान् शिव को विष्णु के समान परब्रह्म ना स्वीकार करने वाले तंत्रों के विरुद्ध ही होगी। ऐसे में इन मतावलंबियों का निर्णय क्या होगा यह प्रश्न विचारणीय है। 

उपरोक्त दोनों में से किसी भी एक स्थिति को स्वीकार न करने पर तथा विष्णु से भिन्न किसी की भी भक्ति को भ्रम मानने की स्थिति में श्रीराम को भी भ्रामक शिक्षा देने वाले के रूप में स्वीकार करना पड़ेगा एवं इस प्रकार शास्त्रों द्वारा श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम अथवा धर्म का साक्षात् स्वरूप कहना निरर्थक हो जाएगा। 

गायत्री मंत्र द्वारा भगवान् शिव का ध्यान किया जाता है। 

श्रीमद्भागवतपुराण 8.7.30 

श्रीराम भगवान् शिव का ही ध्यान करते हैं।  

पद्मपुराण पातालखंड 46.19 

इसके साथ ही साथ श्रुतिशास्त्रों से भी भगवान शिव की परब्रह्मता सिद्ध है। 

यजुर्वेद 16.2,41 +श्वेताश्वतरोपनिषद् 3.1-9,15 

यदि किसी भी स्मृतिशास्त्र का अर्थ श्रुतिशास्त्रों के विरुद्ध निकल रहा है तो ऐसे में स्मृति को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता 

मनुस्मृति 2.11 + महाभारत शांतिपर्व मोक्षधर्म पर्व 260.10 

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह कहना गलत नहीं होगा कि पद्मपुराण उपरोक्त दिए गए श्लोक में भगवान् शिवद्वारा भक्ति रस में आकर भगवान् विष्णु के प्रति अनन्यता के भाव को ही प्रकट किया गया है अर्थात उक्त श्लोक में भगवान् शिव का भगवान् विष्णु के प्रति भक्तिरस में आकर ही वह कथन कहा जाना ही उचित सिद्ध होता है एवं उसे अंतिम सनातन सिद्धांत के रूप में स्वीकार नहीं किया जाना ही उचित सिद्ध होता है। इसी प्रकार एक अन्य वृत्तांत में भक्तिरस के कारण जब भगवान् शिव ने भगवान् राम के प्रति अपने अपने वैष्णव भक्तिरस को प्रकट किया तो सत्यप्रतिज्ञ मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र जी ने उनका खंडन करते हुए अपनी और भगवान् शिव की एकता का प्रतिपादन किया। 

शिवजी का भक्तिरस और श्रीराम (विष्णु) के प्रति अनन्यता का भाव | 

पद्मपुराण पातालखंड 46.5-9 

श्रीराम द्वारा शिवजी के भक्तिरस को सम्मान देते हुए भी अपनी और शिव की एकता का प्रतिपादन । 

पद्मपुराण पातालखंड 46.20-22 

ठीक इसी भक्तिरस का उदाहरण हमें इस्कॉन द्वारा प्रकाशित भगवद्गीता के यथारूप नामक भाष्य में भी प्राप्त होता है जिसमें कृष्ण और विष्णु के बीच में भी भेद बताते हुए विष्णु को अपूर्ण कहा गया है। 

ब्रह्मा, शिव और नारायण सहित कोई भी जीव पूर्ण ऐश्वर्यवान् नहीं है। 

भगवद्गीता यथारूप 2.2 

उपरोक्त भाष्य कृष्ण और विष्णु में भेद सिद्ध करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण को पूर्ण और भगवान् विष्णु को अपूर्ण सिद्ध करता है। इस प्रकार इस्कॉन द्वारा सर्वप्रथम स्वप्रतिपादित चयन प्रक्रिया के आधार पर विभिन्न धर्मशास्त्रों से केवल विष्णु की श्रेष्ठता वाले वचनों को संकलित कर विष्णु को भगवान् के अन्य रूपों से श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। उस पर भी इसी क्रम में आगे पुनः कृष्ण की श्रेष्ठता वाले वचनों को संकलित कर भगवान् विष्णु को भी श्रीकृष्ण से निम्न सिद्ध करने हेतु प्रयास किया जाना ही प्रकट होता है। 

परंतु यदि अब ऐसे में इस पंक्ति को भक्तिरस के कारण कृष्ण के प्रति अनन्यता का भाव प्रकट करने के निमित्त ना मानकर शिव जी के पद्मपुराणोक्त वक्तव्य के विषय में इस्कॉन के ही सिद्धांत को स्वीकार कर लिया जाए तो इस्कॉन द्वारा प्रकाशित भगवद्गीता भी भ्रामक सिद्ध होती है। क्योंकि इस्कॉन के ही अनुसार विष्णु से भिन्न किसी की भी भक्ति की बातें केवल और केवल भ्रम फैलाने के लिए हैं। तो क्या पद्मपुराण के आधार पर इस्कॉन के पक्षधर इस्कॉन द्वारा प्रकाशित की जाने वाली भगवद्गीता को भी भ्रामक स्वीकार करते हैं? 

इसी प्रकार पद्मपुराण में ही एक स्थान पर वैष्णव महिमा का गान करते समय वैष्णव और विष्णु भगवान् को एक समान बताते हुए वैष्णव की पूजा भगवान् विष्णु के समान करने को कहा गया है। 

पद्मपुराण उत्तरखंड 68.13-19 

ध्यातव्य है कि यदि इस वक्तव्य को भावपूर्ण ना समझ के तथ्यात्मक रूप में लिया जाएगा तो इस प्रकार भक्त और भगवान् को एक समान रहते हुए अद्वैत की शिक्षा का ही प्रतिपादन होता है जो कि इस्कॉन की विचारधारा के विरुद्ध है ऐसे में किसके द्वारा इस वक्तव्य का क्या अर्थ स्वीकार किया जाएगा यह प्रश्न विचारणीय है। 

यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि पद्मपुराणोक्त श्लोक के आधार पर विष्णु से भिन्न किसी भी अन्य की भक्ति को भ्रामक मानने वाले मतावलंबियों द्वारा प्रदर्शित की जाने वाली गुरुपरंपरा में भगवान् शंकर आचार्य के रूप में स्वीकार नहीं किए गए हैं। जबकि वैष्णव भक्त नारदादि को ही आचार्य गुरु के रूप में स्वीकार किया गया है। 

इस्कॉन द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली गुरुपरंपरा 

श्रीकृष्ण – ब्रह्मा – नारद – व्यास – मध्व 

ज्ञातव्य यह भी है कि भले ही भगवान् शिव ने विष्णु से भिन्न किसी की भी भक्ति को भ्रामक बताया हो परंतु अपने मंतव्य की पूर्ति हेतु इस श्लोक का आलंबन लेकर शिव और विष्णु में भेद का प्रचार करते हैं। उनके द्वारा गुरुरूप में स्वीकार वैष्णव भक्त श्रीनारद आदि के द्वारा भगवान् शिव के उपरोक्त वचन के ठीक विपरीत शिव और विष्णु में अभेद की शिक्षा का प्रतिपादन किया जाता है। 

नारदपुराण 282:10,1.5.72,15.158-149 

10 नाम अपराध में से एक – हरिहर में भेद 

नारदपुराण 82.10 तथा पद्मपुराण ब्रह्म खंड 25.14 

अतः इस प्रकार अपनी ही परंपरा के आचार्य की बात को न मानते हुए केवल अपने मंतव्य की सिद्धि हेतु भगवान् शिव के रसपूर्ण वचन को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करते हुए प्राथमिकता देना गुरुविरोध भी सिद्ध करता है। ज्ञातव्य है कि पूर्वकाल में भी भगवान् ने बुद्ध के रूप में आकर यज्ञ की रक्षा हेतु परंपरा 

प्राप्त वेददि शास्त्रों का खंडन किया परंतु सनातनियों द्वारा भगवान विष्णु के अवतार बुद्ध को तो स्वीकार किया परंतु उनके द्वारा प्राप्त वेदविरुद्ध शिक्षा को कभी भी स्वीकार नहीं किया गया। 

क्योंकि पूर्वकाल में किसी के कहने अथवा करने से नहीं बल्कि शास्त्रों द्वारा स्वीकार किए जाने पर ही किसी वक्तव्यादि को सनातन सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। 

महाभारत शांतिपर्व 262.52-53 + 260.6-7 

इसी क्रम में यदि पद्मपुराण के उपरोक्त श्लोक को भावपूर्ण ना मानते हुए तथ्यात्मक रूप से स्वीकार किया जाता है तो ऐसे में हमें पुराणों के वक्ता भगवान् वेदव्यास जी द्वारा विष्णु से भिन्न किसी अन्य को श्रेष्ठ बताने वाले शास्त्रों का भी प्रतिपादन होने के कारण उन्हें मिथ्या का प्रचार करने वाले के रूप में स्वीकार करना पड़ेगा। ऐसे में क्योंकि किसी व्यक्ति द्वारा एक भी असत्य का प्रतिपादन करने पर उसकी विश्वसनीयता भंग हो जाती है अतः यदि भगवान् वेदव्यास शिवपुराण, भगवतीपुराण एवं अन्य शैवशाक्तादि पुराणों में विष्णु से भिन्न किसी अन्य की श्रेष्ठता का वर्णन कर भ्रम फैलाने वाले सिद्ध हो रहे हैं तो उस स्थिति में उनके द्वारा प्राप्त होने वाले किसी भी सिद्धांत पर किस आधार पर विश्वास किया जाना उचित सिद्ध होगा? यह प्रश्न विचारणीय  है।

क्योंकि जो व्यक्ति किसी एक जगह पर असत्य बोल सकता है वह दूसरी जगह सत्य नहीं बोल रहा यह किस आधार पर सुनिश्चित होगा ? अगर हम कहें की क्योंकि हमसे बोलते समय उसने बताया है कि हम आपसे सत्य ही बोल रहे हैं इसलिए उसका सत्य बोलना सिद्ध होता है तो ऐसे में यह जानना आवश्यक होगा कि जिन वचनों द्वारा वह भ्रमित करते हैं, क्या वह उन वचनों को यह तथ्य प्रकट करते हुए कहते हैं कि वह उन वचनों द्वारा भ्रम फैला रहे हैं ? अतः इस प्रकार का वक्तव्य वितंडवाद से भिन्न और कुछ नहीं है। 

एवं इस प्रकार शास्त्रों का उपदेश देने वाले स्रोत की विश्वसनीयता पर ही प्रश्न खड़ा कर देने पर पूर्ण रूप से सनातन धर्म पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है और ऐसे में सनातन धर्म द्वारा प्राप्त होने वाला ज्ञान भी अब्राहमिक विचारधाराओं के समान दिखाई देता है। क्योंकि अब्राहमिक विचारधाराओं को प्रदान करने वाली पुस्तकों में भी उसकी रचना करने वाले स्रोत को असत्य वचन बोलने वाले भ्रमित करने वाले अथवा वचनों को बदलने वाले के रूप में भी स्वीकार किया गया है। ऐसे में उन पुस्तकों द्वारा प्राप्त होने वाले सिद्धांतों को भी सनातन सिद्धांत के रूप में स्वीकार करना निराधार सिद्ध होता है। 

कुरान 2.106 ऊपर वाला अपनी आयतों को बदल देता है। कुरान 7:178, 6:149 ऊपर वाला भटकाता है। 

तो क्या इस प्रकार हमें भी अपने धर्म शास्त्रों को अब्राहमिक विचारधारा वाली किताबों के समान मान लेना चाहिए जो स्वयं यह घोषणा करते हैं कि उनको प्रदान करने वाला स्रोत विश्वसनीय नहीं है। 

और यदि व्यासजी द्वारा प्रतिपादित धर्मशास्त्रों की विश्वसनीयता भंग भी हो जाती है ऐसे में भी उक्त वचनों को सैद्धांतिक रूप में स्वीकार न करते हुए वेद का आश्रय लेना ही सनातन सिद्धांत है । 

इन शास्त्रोक्त तथ्यों के उत्तर में कभी-कभी वैष्णवताकी आड़ में छुपाने का प्रयास किया जाता है, किस प्रकार वृत्तांत वाद करने वालों से हमारे कुछ प्रश्न हैं । 

क्या वैष्णव का अर्थ वेदादि श्रुतिशास्त्रों का विरोध करने वाला है ? 

जबकि वैष्णव सदा वेदशास्त्र में लगा रहने वाला होता है। 

पद्मपुराण उत्तराखंड 68.8 

श्रुति और स्मृति मेरी आज्ञा हैं, जो इसका पालन नहीं करता है वह आज्ञाच्छेदी – मेरा द्रोही है ! चाहे वह मेरी भक्ति करे तो भी उसे वैष्णव नहीं मानना चाहिये। ~श्रीविष्णुधर्मपुराण 

वेद जिन कर्मों का विधान करते हैं वही धर्म है और वेद जिन कर्मों का निषेध करते हैं वही अधर्म है। वेद साक्षात् नारायण हैं, वे नित्य हैं 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 6.1.40 

जो मनुष्य शास्त्रोदेशानुरूप धर्माचरण का पालन नहीं करता केवल भक्ति मात्र से ही जी रहा है एसी मन मुखी भक्ति करने वालों से भगवान् कभी प्रसन्न नहीं होते । 

नारदपुराण 15.148-156 

जो धर्म साधन से रहित है उसे यमदूत खींच कर ले जाते हैं। 

नारदपुराण 34.48 

धर्म और अधर्म के विषय में एकमात्र शास्त्र ही प्रमाण है। 

श्रीमदभगवद्गीता 16.24 

  • क्या वैष्णव का अर्थ स्मृतिशास्त्रों को वेद विरोधी सिद्ध करने वाला है ? 
  • क्या वैष्णव का अर्थ व्यास, नारद, शुकदेव, श्रीकृष्ण, शिवजी की एक बात को मानने वाला और दूसरी बात को ठुकरा देने वाला है? 
  • क्या वैष्णव का अर्थ प्रभु श्रीराम को भ्रामक कहने वाला है? 
  • क्या वैष्णव का अर्थ गुरुविरोध करने वाला है? 
  • क्या वैष्णव का अर्थ विष्णु को निम्न कहते हुए विष्णु से भिन्न किसी और को श्रेष्ठ मानने वाला है? 

और यदि इस प्रकार दिए जाने वाली शिक्षा किसी व्यक्ति स्थिति अथवा वस्तु से प्रभावित है तो उसे सनातन धर्म कहना उचित सिद्ध नहीं होता। 

जबकि किसी भी देश-काल- स्थिति में ना बदले, ना उत्पन्न हो, ना नष्ट हो और ना ही प्रभावित हो उसी का नाम सनातन है। 

अथर्ववेद 10:8:23 सनातनमेनमाहुरुताद्य । 

अथवा क्या इस शिक्षा का प्रचार प्रसार करते समय जिज्ञासुओं को यह बताया जाता है कि उनको सनातन धर्म की नहीं अपितु किसी व्यक्तिगत मान्यताओं से निर्मित अनित्य धर्म की शिक्षा दी जा रही है ? सरल भाषा में कहें तो इस प्रकार शिव और विष्णु 

में भेद की शिक्षा को वैष्णवता की आड़ में छुपाने का प्रयास करने वालों को अपनी अनित्य शिक्षा का प्रचार करते समय यह स्पष्ट करना चाहिए कि वह सनातन विरुद्ध केवल नाम से वैष्णव विचारधारा का प्रचार प्रसार कर रहे हैं 

साथ ही साथ इस्कॉन द्वारा शिव और विष्णु में भेद के प्रचार को वैष्णवता कि आड़ में सही सिद्ध करने का प्रयास तो पूर्णतया निरर्थक ही सिद्ध होता है क्योंकि इस्कॉन द्वारा कृष्ण और विष्णु में भेद करते हुए कृष्ण को विष्णु से श्रेष्ठ दिखाने का प्रयास 

किया जाता है ऐसे में यदि कृष्ण विष्णु में भी भेद है और विष्णु कृष्ण से निम्न हैं तथा इसी क्रम में आगे इस्कॉन द्वारा विष्णु की नहीं अपितु कृष्ण की भक्ति करने की शिक्षा जाती है तो उसका स्वयं को वैष्णव ना कह कर क्रैष्णव कहना ही युक्तियुक्त सिद्ध होता है। 

जो विष्णु भगवान् का भक्त होता है वह वैष्णव होता है। 

पद्मपुराण उत्तराखंड 82.2 

अतः पद्म पुराण के उपरोक्त श्लोक के आधार पर विष्णु और शिव में भेद करते हुए विष्णु को श्रेष्ठ और शिव को निम्न ख्यापित करने का प्रयास निश्चित रूप से प्रमाण युक्ति अर्थात धर्मविरुद्ध है। 

क्योंकि सर्वप्रथम श्रुतिशास्त्र भगवान् शिव को मोक्षदायक कहते हैं एवं इस प्रकार लक्षणसाम्य से शिव और विष्णु में परस्पर अभेद सिद्ध होता है। 

शैव, वैष्णव सभी पुराण शिव और विष्णु की समानता बताते हैं तथा विष्णु की ही भांति भगवान् शिव को भी परब्रह्म कहा गया है। 

धर्म के साक्षात् स्वरूप मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भी शिव और विष्णु में भेद करने का विरोध करते हुए शिवजी को अपने ही समान परब्रह्म मानने की शिक्षा का प्रतिपादन करते हैं। 

अतः पद्म पुराण में दिए गए भगवान् शिव के उक्त वचन को भक्तिरस के कारण भगवान् विष्णु के प्रति अनन्यता का भाव प्रकट करने वाला ना मानकर इस्कॉन के अनुयायी पद्मपुराण को वेद विरुद्ध, भगवान् शिव को वेदविरुद्ध, प्रभु श्रीराम को असत्यवादी तथा स्वयं को गुरुविरोधी, नास्तिक एवं भ्रामक शिक्षा का प्रचार प्रसार करने वाले अधर्मी सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। 

जय श्रीराम 

  • संकलनकर्ता- शिवांश नारायण द्विवेदी 
  • प्रभु भुम के साधारण भक्त 
  • श्रीमद जगद्गुरु शंकराचार्य पुरी पीठाधीश्वर के अलपज्ञ शिष्य 
  • जिला संयोजक – आदित्य वाहिनी लक्ष्मण पुरी लखनऊ 
  • अध्यक्ष – आह्वान धर्म रक्षार्थ सेवा समिति 

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सम्पर्क :- 7408301869 & +91 6388 020 946

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By Ahvaan

सभी महानुभावों को जय श्रीराम, यह चैनल हमने मनुष्य के एकमात्र धर्म सनातन के प्रति हो रहे अन्यायपूर्ण कृत्यों के प्रतिकार स्वरूप बनाया है।

सनातन धर्म के प्रमाणिक शास्त्र-सम्मत एवं सार्वभौमिक सिद्धांतों के द्वारा समाज में व्याप्त विभिन्न मत-मतांतर और भ्रांतियों को समाप्त करते हुए हिंदुओं को संगठित कर सुसंस्कृत, सुशिक्षित, सुरक्षित, संपन्न, सेवापरायण, स्वस्थ, सर्वहितप्रद व्यक्ति व समाज की संरचना, तदानुसार सबके हित का ध्यान रखते हुए हिंदुओ के अस्तित्व एवं आदर्श की रक्षा ही हमारा उद्देश्य है।

दोस्तों, स्वार्थी सभी थे भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु फर्क केवल इतना है कि कोई लड़ता है अपने लिए, कोई लड़ता है अपने परिवार के लिए, कोई अपनी गली-मोहल्ले, शहर, प्रदेश या देश के लिए और कोई पूरी मानवता के लिए, इन सारी लड़ाइयों के पीछे एक ही शब्द था' मेरा' या कहे' मैं' अब देखना यह है कि आपका यह' मैं' कितना बड़ा है।

॥ धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥

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