उत्तर — प्रकाश व विमर्श केवल बोलनेमात्र के लिए भिन्न हैं, परन्तु वास्तव में अभिन्न ही हैं। उदाहरण के लिए अग्नि और दाहकता(heat) केवल बोलने के लिए भिन्न हैं, वास्तव में अभिन्न ही है।
शाङ्करवेदान्त में जिसे ब्रह्म कहा जाता है, शिवाद्वयवाद में उसे ही प्रकाश बोला जाता है, परन्तु शाङ्करवेदान्त के ब्रह्म की भान्ति यह प्रकाश निष्क्रिय नहीं है, यह प्रकाश अभिव्यक्तिहीन नहीं है। यह सक्रिय है, अभिव्यक्तिशील है।
इसकी इसी सक्रियता को ही विमर्श कहते हैं। यदि प्रकाश नामक कोई अद्वैतसत्ता है तो अद्वैत होने के कारण वह परमस्वतन्त्र है, और यदि कोई सत्ता है तो कोई सामर्थ्यशून्य सत्ता हो नहीं सकती, उसमें सामर्थ्य होगा ही, चूंकि स्वातन्त्र्य परम है तो सामर्थ्य भी परम होगा। स्वातन्त्र्य व सामर्थ्य परम है तो आनन्द भी परम होगा।
अर्थात् प्रकाश परमानन्दमय है, परमस्वातन्त्र्यमय है और परमसामर्थ्यमय भी है। यह तीनों वास्तव में पर्याय ही हैं, स्वातन्त्र्य = सामर्थ्य = आनन्द। यह आनन्द प्रकाशसे भिन्न नहीं है, उदाहरण के लिए जब हम कोई अपना प्रिय गीत सुनते हैं तो आनन्दित होके गुनगुनाने लगते हैं, उस आनन्द के कुछ क्षणों में आनन्द में और आनन्द को भोगनेवाले में कोई भेद नहीं रहता।
यहाँ इसी विशुद्ध आनन्द की बात की जा रही है। स्वातन्त्र्य व सामर्थ्य भी भिन्न नहीं हो सकते, अग्नि की दाहकता उसका सामर्थ्य ही तो है। प्रकाश का ये स्वातन्त्र्य/सामर्थ्य/आनन्द ही विमर्श है। प्रकाश का स्वयं को जानना अथवा प्रकाश की स्वयं को जानने की क्रिया इस विमर्श की ही अभिव्यक्ति है अथवा विमर्श ही है। यह क्रिया इच्छा से उत्पन्न होने वाली क्रिया नहीं है, न ही यह यान्त्रिक है, यह स्वभाव ही है, अनायासत: है, स्वातन्त्र्य की अभिव्यक्ति अथवा स्वातन्त्र्य ही है।
ॐ तत्सत् 🙏
One reply on “शिवाद्वयवाद में प्रकाश का विमर्श क्या है?”
Nice work 👍