॥ श्रीहरिः ॥
श्रीरामचरितमानसके कथा-प्रसङ्गोंपर पाठकगण नाना प्रकारकी शङ्काएँ किया करते हैं और विद्वान् लेखक तथा कथावाचकगण उनका विभिन्न प्रकारोंसे समाधान करते रहते हैं। ‘मानस’ की ऐसी शङ्काओंका वैकुण्ठवासी श्रीदीनजी बड़ा सुन्दर समाधान करते थे और सुननेवालों तथा पढ़नेवालोंको उससे बड़ा संतोष होता था। इस संग्रहमें ऐसी ही कुछ खास-खास शङ्काओंका समाधान प्रकाशित किया जा रहा है। आशा है, इससे पाठकोंको संतोष होगा।
2. शिव और रामकी सच्ची उपासनाका रहस्य
श्रीमानसमें भगवान् श्रीराम कहते हैं-
संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास । ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास ॥
यहाँ शंका उठती है कि जो मनुष्य शिवजीका भक्त है और रामचन्द्रजीसे द्रोह रखता है- (जैसे रावण) तो वह क्योंकर घोर नरकमें वास कर सकता है ? पुनः जो रामचन्द्रजीका परमभक्त है, वह शिवजीसे द्रोह ही क्यों न रखता हो, वह कदापि नरकगामी नहीं हो सकता; क्योंकि जो मनसा वाचा-कर्मणा अपने इष्टमें सच्चा प्रेम करता है, वह मुक्त हो जाता है। यदि कोई भक्त नरकगामी होता है तो कहना पड़ेगा कि अपने इष्टका वह सच्चा प्रेमी नहीं था और न इष्टकी कृपा ही उसके ऊपर हुई थी। श्रीरामचन्द्रजीका वचन है- ‘प्रान ते अधिक भक्त प्रिय मोरे।‘ और शङ्करजी औढरदानी प्रसिद्ध ही हैं। जरा-सी भक्तिसे त्रिलोकीका राज्य सौंप दे सकते हैं।
उपर्युक्त शङ्काको अच्छी तरह समझनेके लिये प्रसङ्गको पूरा-पूरा उद्धृत करना आवश्यक है; इससे पाठकोंको दोहेके भावको ठीक-ठीक जाननेमें सहायता मिल सकती है-
लिंग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा ।। सिव ब्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा ॥ संकर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ़ मति थोरी ।।
संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास । ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास ।। जे रामेस्वर दरसनु करिहहि। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं ।। जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि। सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि ।। होइ अकाम जो छल तजि सेइहि। भगति मोरि तेहि संकर देइहि ।। मम कृत सेतु जो दरसनु करिही। सो बिनु श्रम भवसागर तरिही ।। राम बचन सब के जिय भाए। मुनिबर निज निज आश्रम आए । गिरिजा रघुपति के यह रीती। संतत करहि प्रनत पर प्रीती ॥ बाँधा सेतु नील नल नागर। राम कृपाँ जसु भयउ उजागर ॥ बूड़हिं आनहि बोरहिं जेई। भए उपल बोहित सम तेई ॥ महिमा यह न जलधि कड़ बरनी। पाहन गुन न कपिन्ह कड़ करनी ॥
श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान । ते मतिमंद जे राम तजि भजहि जाइ प्रभु आन ।।
उपर्युक्त शङ्कामें यह विचार प्रकट किया गया है कि जो मनुष्य शिवजीका भक्त है और रामजीसे द्रोह रखता है अथवा जो रामचन्द्रजीका परम भक्त है और शङ्करजीसे द्वेष रखता है, वह कदापि नरकगामी नहीं हो सकता। परंतु यह बात सम्भव नहीं है; क्योंकि श्रीमुखके वचनोंसे ही यह सिद्ध हो रहा है कि-
सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा ।।
यहाँ ‘कहावा’ शब्दद्वारा स्पष्ट ‘अभिप्राय’ बोध हो रहा है कि ‘शिवजीसे द्रोह करनेवाला मेरा कहनेमात्रका भक्त है, वह मेरा यथार्थ दास नहीं है। ऐसा आदमी अपनेको झूठ ही रामदास कहता है।’ जैसे-
बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के ॥
अतएव ‘सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा ।।‘ सारांश यह है कि ‘शिवजीसे द्रोह करनेवाला आदमी स्वप्रमें भी मुझे प्राप्त न होगा; क्योंकि मेरी प्राप्ति मेरे भक्तोंको ही होती है’ और-
संकर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ़ मति थोरी ॥
अर्थात् जो शिवजीसे द्रोह करके मेरी भक्तिकी इच्छा करता है, वह मूढ़ तुच्छ बुद्धिवाला मनुष्य उलटे नरकगामी होता है; क्योंकि श्रीरामभक्तिके भण्डारी और दाता तो शिवजी ही हैं। अतः उनसे द्रोह करके श्रीरामभक्तिको पाना भी असम्भव ही है। जैसे-
जेहि पर कृपा न करहि पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी ।।
तथा-
सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं ।। बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू ।।
इसी सिद्धान्तका निष्कर्ष प्रस्तुत प्रसङ्गमें इस प्रकार वर्णित हुआ है- होइ अकाम जो छल तजि सेइहि। भगत्ति मोरि तेहि संकर देइहि ।।
इसी प्रकार जो शिवजीका भक्त बननेकी इच्छा करता हुआ श्रीरामजीसे द्रोह रखेगा, उसे अपने इष्टसे द्रोह करनेके कारण शिवजी स्वयं रुष्ट होकर नरक भेज देंगे। इसके प्रमाणमें उत्तरकाण्डमें भुशुण्डिजीका चरित्र देखना चाहिये। उन्हें श्रीगुरुदेवद्वारा शिक्षा मिलती है-
सिव सेवा कर फल सुत सोई। अबिरल भगति राम पद होई ।। रामहि भजहिं तात सिव धाता। नर पावैर कर केतिक बाता ।। जासु चरन अज सिव अनुरागी। तासु द्रोह सुख चहसि अभागी ।।
– और इस शिक्षाके न माननेसे अवज्ञाके फलस्वरूप स्वयं शिवजी उन्हें अधोगतिका दण्ड देते हैं, भुशुण्डिजीसे बढ़कर शिवजीका अनन्य भक्त दूसरा कौन होगा ? परंतु अपने इष्टका अनादर कोई सच्चा सेवक नहीं सह सकता और रामभक्तशिरोमणि जिन शिवजीने श्रीसीतामाताका वेष धारण करनेके कारण सती-जैसी अपनी अनन्य प्रियाका त्याग कर दिया था-
सिव सम को रघुपति व्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी ॥ पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई ।। सिय बेषु सर्ती जो कीन्ह तेहिं अपराध संकर परिहीं ।।
जिन शिवजीने सतीकी तनिक चूकपर यह प्रण कर लिया कि- जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पशु होड़ अनीती ।।
– वे शिवजी साधारण मनुष्यको रामद्रोही [‘सोइ मम इष्ट देवं रघुबीरा‘ के अनुसार] जानकर भी उस अपने इष्टके अपराधीको अपना भक्त मानेंगे या उसे घोर नरकमें डालेंगे? अतः रामका द्रोही होते हुए भी शिव-भक्त होना असम्भव है। तात्पर्य यह है कि ‘सेवक स्वामि सखा सिय पी के’ के अनुसार श्रीरामजी और श्रीशिवजीमें अन्योन्य अखण्ड प्रीतिका सम्बन्ध है; अतः जो मनुष्य इन दोनोंमेंसे एकका द्रोही होगा, वह दूसरेका भी द्रोही हो जायगा। इसलिये उसे भक्त न कहकर अभक्त ही कहना अधिक सङ्गत्त होगा। और भक्त तो देव-द्रोह क्यों, संसारके किसी भी प्राणीसे द्रोह नहीं करता-
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ।।
पुनः जहाँ अनन्य भक्तका लक्षण इस प्रकार बतलाया गया है कि-
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत । मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत ।।
वहाँ अपने सेव्यके परम प्रियतमसे ही द्वेष करनेवाला नरकगामी न हो तो फिर उसका और कहाँ ठिकाना लग सकता ? जब—
चौदह भुवन एक पति होई। भूत द्रोह तिष्टइ नहि सोई ।।
अर्थात् चौदहों भुवनोंका एक मालिक हो जानेपर भी जगत्के प्राणियोंसे द्वेष करनेसे पतन होता है। तब भगवान् राम और शङ्करसे द्रोह करनेपर यदि कल्पभर नरकमें वास करना पड़े तो इसमें अत्युक्ति क्या होगी ? नरकसे बचनेका उपाय तो श्रीरघुनाथजी तथा शिवजीकी भक्ति ही है; अतः जो मनुष्य
भगवत् और भागवत दोनोंकी भक्तिसे विमुख है अथवा इनसे द्रोह करता है, उसे महानरक मिले इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। इसीलिये श्रीमुखसे भगवान्ने कहा है-
संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास । ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास ।।
अर्थात् ‘जो अपनेको शिवका प्रिय दास मानकर मुझसे द्रोह मानता है अथवा मेरा दास बनकर शिवजीसे द्रोह मानता है, वह वस्तुतः न मेरा ही भक्त है और न शिवजीका ही; बल्कि वह हम दोनोंका द्रोही है। अतः इस द्रोहके प्रायश्चित्तस्वरूप उसे कल्पभर घोर नरकमें वास करना पड़ेगा।’
इस शङ्कामें उदाहरणस्वरूप रावणका नाम पेश किया गया है। परंतु वह भी जबतक श्रीरामजीसे द्रोह बिना किये श्रीशिवजीकी तपस्या करता रहा, तबतक भगवान् शिव अनुकूल होकर उसे सुख-सम्पत्ति प्रदान करते रहे। जैसे-
सादर सिव कहुँ सीस चढ़ाए। एक एक के कोटिन्ह पाए । जो संपति सिव रावनहिं दीन्हि दिएँ दस माथ ।
– इत्यादि प्रमाणोंसे सिद्ध होता है, परन्तु जब उसने श्रीरामचन्द्रजीसे द्रोह आरम्भ किया तथा रामभक्तों, देवता, गौ और ब्राह्मणोंको दुःख देने लगा, तब वही शिवजी उस रावणके विनाशमें तत्पर हुए। जब पृथ्वीने दुःखित होकर देवताओंके साथ ब्रह्मलोकमें जाकर रावणके नाशके लिये पुकार मचायी तब श्रीशिवजीने उनके साथ होकर वे जहाँ थे वहीं भगवान्की स्तुति करनेके लिये कहा। जैसे-
तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेकै । हरि व्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना ॥ मोर बचन सब के मन माना। साधु साधु करि ब्रह्म बखाना ।।
तथा जब श्रीरामचन्द्रजी अवतार लेकर रावणका विध्वंस करने लगे तब श्रीशिवजी हर्षसे फूले न समाये और अपने उसी रामद्रोही सेवकका नाश अपनी आँखों देखकर प्रसन्न हो उठे। जैसे-
हमहूँ उमा रहे तेहि संगा। देखत राम चरित रन रंगा ॥
इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजीके द्रोहीसे श्रीशिवजी भी रुष्ट हो जाते हैं। अब यदि यह शङ्का की जाय कि ऐसे अपचारी रावणको नरक क्यों नहीं प्राप्त हुआ ? तो इसका कारण श्रीरामजीके हाथोंसे उसकी मृत्यु होना है। शिवजीकी भक्तिसे उसे मोक्ष नहीं मिला। केवल रावण ही नहीं, श्रीरामजीके हाथों जितने जीव मारे गये, सभी मुक्त हो गये- जैसे ‘कीन्हें मुकुत निसाचर झारी ।। ‘ बालिने कौन-सी शिवभक्ति की थी, जो ‘राम बालि निज धाम पठावा ।‘ मृगोंने शिवजीकी कौन-सी तपस्या की थी, जो-
जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे ।।
भला, जो शिवजी रावणको ‘सुर महिसुर हरिजन अरु गाई‘ का हिंसक तथा श्रीरामजीका विरोधी मानकर उसके सत्यानाशमें तत्पर होते हैं, वही उसे मुक्ति देनेकी चेष्टा करें- यह सर्वथा असम्भव है। बल्कि श्रीरामजी अपने द्रोहीको भी मुक्ति देते हैं, यह बात स्वयं शिवजी कहते हैं-
उमा राम मृदु चित करुनाकर। बंयर भाव सुमिरत मोहि निसिच्चर ।। देहि परम गति सो जियै जानी। अस कृपाल को कहहु भवानी ।।
अर्थात् ‘पार्वति ! श्रीरामजीका कोमल चित्त करुणाकी खान है; वे जब हृदयमें विचारते हैं कि निशाचर मुझे वैरभावहीसे सही, स्मरण तो करते हैं तो उनको परमगति देते हैं। भवानी। ऐसा कृपालु स्वामी दूसरा और कौन हो सकता है; अतएव रावणके उदाहरणसे इस प्रसङ्गमें दोष नहीं आता, बल्कि श्रीमुखके वचनोंसे यही प्रमाणित होता है कि श्रीरामद्रोहीपर स्वप्नमें भी श्रीशिवजीकी कृपा नहीं होती। हाँ, शङ्का करनेवाले महाशयका यह विचार यथार्थ ही है कि ‘जो मनसा वाचा-कर्मणा अपने इष्टमें सच्चा प्रेम रखता है,
वह अवश्य ही मोक्षको प्राप्त होगा, नरकको नहीं और यदि वह नरकगामी हुआ तो कहना होगा कि वह अपने इष्टका सच्चा भक्त नहीं था और न उसके इष्टकी ही उसपर कृपा थी।’
सियावर रामचन्द्रकी जय !